Tuesday, June 11, 2019

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Friday, June 07, 2019

केदार यात्रा से पहले सहारनपुर में पहला दिन (5)

थैंक यू, आपको मेरी ब्लॉग अच्छी लग रही है। सालो से कोशिश कर रहा था। सब भोले बाबा की इच्छा।

आख़िरकार ११ मई को, मै सहारनपुर पहुँच चुका था। सहारनपुर ऐतिहासिक जगह है। शायद आपको याद हो काकोरी काण्ड वाली ट्रेन। वो सहारनपुर से ही चलती थी। अच्छा मै जब छोटा था तब हरिद्वार भी सहारनपुर जिले का हिस्सा था। तब उत्तराखंड भी नहीं था सब उत्तर प्रदेश ही था। अरुण कुमार मिश्रा तब सहारनपुर जिले के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट होते थे। मेरे हमनाम है तो मुझे याद है। मै माँ के साथ १९८६ का कुम्भ मेला गया था। साथ में  हमारे पड़ोस में रहने वाले बहुत से अंकल,आंटी। याद है हम सुबह गए और शाम को लौट भी आये। पर पड़ोस में रहने वाली कपूर आंटी ने बोला वो सुबह का स्नान करके ही आएंगी। अगले दिन हरिद्वार में भगदड़ मच गयी। हमारे घर तब ब्लैक एंड व्हाइट टेक्सला टीवी था जिसके वुडेन दरवाजे फोल्ड हो जाते थे। उस टेलीविजन पर एक स्पेशल प्लास्टिक की ब्लू स्क्रीन लगाते थे। जैसे ही न्यूज़ में पता चला तो सब परेशान। आगे पीछे की सब गलियों वाले कपूर अंकल को आंटी के बारे में पूछे। हम सही समय पर वापिस आ गये थे। कपूर अंकल बड़े परेशान रहे पर शाम तक पता चला कपूर आंटी ठीक है।

कुछ भी कभी भी याद आता है मुझको। बचपन की यादें ऐसी ही होती है। कपूर अंकल के घर में एक आम का पेड़ था सावन के दिनों में उसी पर झूला लगता था।

जब भी सहारनपुर ट्रेन से पहुँचता हूँ। सहारनपुर की पेपरमिल सबसे पहले आपका स्वागत करती है।  बचपन में हमें उससे निकलने वाली गैसों की बदबू आज भी याद है।  पेपरमिल के सामने ही इंस्टिट्यूट ऑफ़ पेपर टेक्नोलॉजी (आई पी टी ) है जो की रूड़की यूनिवर्सिटी का ही एक पार्ट है।

आई पी टी मुझे याद है इस वजह से कि इस पर पहली बार मै किसी मैट विकेट पर क्रिकेट खेला था। बताना चाहूँगा मैट विकेट का मतलब, विकेट अब ऑस्ट्रेलिआ जैसी उछाल वाला विकेट बन चुका है। मैट पर गेंद गिरते ही साथ आपके कंधों तक आती है। मै क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाडी कभी नहीं रहा। सब मुझे शास्त्री कहते थे। क्योंकि चाहे मै आउट न हूँ पर मै रन बनाने में बहुत कंजूस था। इसलिए मुझको मेरे मोहल्ले की टीम में सबसे आखिरी वाले नंबर पर भेजते थे।

यादो का महाकुम्भ है मेरे पास।

सहारनपुर में हमें पुराने दोस्तों के साथ री-यूनियन मतलब सालों बाद मिलना था। जँहा हमने अपना बचपन बिताया वँहा समय बिताना था। फिर अगले दिन शाम को केदारनाथ यात्रा शुरू करने के लिए अपने दूसरे पड़ाव ऋषिकेश पहुंचना था।

जैसे ही ट्रेन से नीचे कदम रखा ही था तो सामने दीदी के बहुत पुराने मित्र, हमे लेने के लिए सामने खड़े थे।  जिनको चीनी से परहेज मगर गुटके से बहुत प्यार था। पर शौक बड़ी चीज़ है। वही अपनापन वही मुस्कराहट।

"तू अब भी वैसा है चुपचाप रहने वाला, या कुछ बदला भी है।" मै इसके जवाब में सिर्फ मुस्करा ही सकता था।

"अरे तुमने जब यह देखा था तब से यह जगह देखो कितना बदल गया है। और यह जगह तो बिलकुल ही बदल गयी । और देखो खानआलमपुरा फर्नीचर मार्किट, यह करीब करीब वही पुराने तीस साल जैसा ही है।"
कहते कहते उन्होंने अपनी कार डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल कैंपस में मोड़ दी जँहा हमने अपना बचपन बिताया था।

मै अपनी पुरानी जगह को देख सन्न रह गया। कँहा हम पहले सोच रहे थे पुराने लोगो से मिलेंगे पुरानी जगहों पर टहलेंगे। पर यह क्या? यँहा तो बहुत कुछ बदल गया था।  मुझे ऐसा लगा जैसे मै अपने बचपन की यादो के महलो के खंडहर देख रहा हूँ।

यह ऐसा था कि जब हम वँहा से निकले तो दीदी बोली अब कुछ बचा नहीं और वो सचमुच वँहा दुबारा नहीं गयी।

आधुनिकता का मतलब शायद यह नहीं की जँहा खुली जगह देखो वँहा बिल्डिंग बना दो वो भी किसी प्लानिंग के बिना। मुझे बहुत क्रोध था पर पता नहीं एडमिनिस्ट्रेशन की क्या मज़बूरी रही होगी।

मुझे याद है कैंपस के पास एक चौक था। उसे हॉस्पिटल साथ में होने के कारण हॉस्पिटल चौक ही बोलते थे। वँहा देहली चाट भण्डार के नाम से एक चाट वाला अपनी रेहड़ी लगता था। अपने समय में सहारनपुर का एकमात्र फेमस चाट वाला। हॉस्पिटल चौक से मुख्य शहर की तरफ जाने वाली रोड के दोनों ओर , जँहा यह चाटवाला भी था , बहुत लम्बे लम्बे पेड़ थे और उन पर हजारों चिड़ियाएँ रहती थी। जब आज से पंद्रह साल पहले यँहा आया था तो सड़क को चौड़ा करने के नाम पर वो सारे पेड़ काट दिए। वो हजारों चिड़ियाएँ, जब शाम को वो अपने इन घरों में वापिस आकर गुफ्तगू करती थी तो इनके शोर को बहुत दूर तक सुना जा सकता था। और तो और आप को एक दूसरे से बात करने के लिए जोर से बात करनी होती थी। पता नहीं वो सब कँहा चली गयी। पता नहीं किसी ने उनका पता ढूँढने की कोशिश की या नहीं।

आप नहीं जानते, मैंने अपने सबसे सुंदर ख्वाबघर को खो दिया है। मेरी यादों के बहुत से पॉइंट्स इस बेतरतीब निर्माण से ख़त्म हो गए। मुझे मेरी खुली जगह जँहा बहुत सारे पेड़ थे मैदान थे, उसकी बजाय छोटी सी जगह, छोटे से तंग रास्ते, इन्हें देखकर मेरी आँखों से आंसू भी स्तब्ध से रुके पड़े थे।  मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

मै ठीक अपने घर के सामने खड़ा था। पापा के लगाए सभी पेड़, सिर्फ पीछे के आँगन में लगाए आम के पेड़ के अलावा सब पेड़ काट दिए गए थे। अब सब कुछ मेरी यादों में ही है।

मै जैसा छोड़ कर गया था उससे मेरी जन्मभूमि बहुत बेतरतीब तरीके से बिगड़ चुकी थी। मै इस नुकसान को समझना चाहता था इसलिए शाम को फिर वापिस आया पुराने लोगो से मिला और अपना एक पुराना हिसाब भी चुकता किया। अभी तो हम अपने होटल पहुंचे। क्योंकि कल शाम के मुंबई से निकले रात को दिल्ली पहुँचे और फिर सहारनपुर। और तो और भैया की कार से एक छोटा सा सहारनपुर दर्शन। मिलेजुले से भाव लेकर अपनी यात्रा की थकान मिटाने अब हम अपने होटल पहुँच गए।

मुझे लगता है मै विषय से न भटक जाऊँ। बहुत से फीडबैक मिल रहे है। सबको ब्लॉग पसंद आ रही है। पर मुझे कभी लगता है सब डिलीट कर दूँ। फिर से लिखूँ।

मात्राओं की गलती बताने वाले मित्रों का धन्यवाद। थैंक्स आप मुझे लगातार फीडबैक दे रहे हैं। पर सहारनपुर चैप्टर मुझे मेरे मेन ऑब्जेक्टिव से विचलित तो नहीं कर रहा। शायद सहारनपुर केदारनाथ से पहले आना हमारी पहली भूल थी। क्यों? बताऊँगा अगली पोस्ट में।



   

Tuesday, June 04, 2019

मेरी पहली केदार यात्रा - पहला पड़ाव (4)

एक बार दीदी बोली , कैसा यह सफर होता है। नए नए लोग मिलते है उनका भी एक जीवन क्रम होता है। मुझे मैट्रिक्स मूवी की याद आ रही थी। कैसे विश्व को बनाने वाला लोगों के जीवन को प्रोग्राम करता है।

जैसे हम एयरपोर्ट से उतरे तो किसी ने बोला सामने ही एयरपोर्ट मेट्रो स्टेशन है। हमने जाने का रास्ता पूछा और हम मेट्रो स्टेशन के लिए चल पड़े। आधे रास्ते में ही टैक्सी वालो ने हमें गाइड और मिस गाइड दोनों ही किया।  हम हिचके, वापस अपने टर्मिनल लौटे और फिर सोचा , नहीं साइन बोर्ड देखते हुए चलो चलते है।  जैसे ही दूसरे टर्मिनल पर पहुंचे तो ईश्वर की कृपा थी अचानक मुझे कश्मीरी गेट जाने वाली एसी बस दिखी।  मैंने दीदी से बोला रात का समय है, हम इससे नई दिल्ली पहुँच सकते है। यह हमें आराम से पहुँचा देगी।  

और फिर पता नहीं क्या अचानक सूझा और हम बस में बैठ गए। सारे टर्मिनलो का चक्कर लगाते हुए यह लाल डब्बा बस हमें नयी दिल्ली ले ही आयी। वो भी शायद बहुत कम समय में। और बीच में तो मेरी आँख भी लग  गई थी।  

बस ने हमें अजमेरी गेट साइड छोड़ा और हम चलते हुए, सिक्योरिटी चेक को पार करते हुए अजमेरी गेट से लेकर पन्द्रह सोलह प्लेटफार्म जिक-जैक पैदल पुल से आखिरकार पहाड़ गंज साइड वाले एसी वेटिंग रूम में पहुँच गए। 

६० रूपये तीन घंटे के लिए। रिसेप्शनिस्ट ने कहा। ओके। और हमने अपने लिए एक कोने में बैठने की जगह ढूंढ ली। वेटिंग रूम में ही फ़ास्ट फ़ूड की शॉप भी थी।  चाय पी कोल्ड ड्रिंक पिया और थोड़ा आराम किया। पहले बैठने की जगह मिली और आखिर के घंटे में लेटने की भी जगह मिल ही गयी। 

वेटिंग रूम पूरी तरह से भरा था।  लोग सीटों पर सोये हुए थे , बैठे हुए थे , सामान रखा था। और सामने दीवार पर ८०-९०  दशक के हिंदी फ़िल्मी सांग्स एक केबल टेलीविजन पर चल रहे थे।  मै उसी में रम गया।  चूँकि मै अपने सामान को लेकर बहुत सतर्क था। खासकर नई दिल्ली स्टेशन पर। इसलिए सोया नहीं।

जिस बेबी का शायद कुछ दिन पहले ही जन्म हुआ हो , से लेकर जीवन के आखिरी पड़ाव पर पहुंचे सब लोग थे।  उस वेटिंग रूम में।  सब अपने डेस्टिनेशन पर जाने के लिए माध्यम अथार्त ट्रेन का वेट कर रहे थे।  

ट्रेन को शायद यूँही भारत की लाइफलाइन न बोलते हैं। वास्तव में भारत की ट्रेन और उसके स्टेशन इनका भी एक दर्शन है।

आखिरकार तीन घंटे बीत ही गए और हम अजमेरी गेट साइड देहरादून शताब्दी का वेट करने लगे। आराम से सीट मिल गयी। आराम से थोड़ा सोये शताब्दी ट्रैन का वही पुराना मेनू वाला ब्रेकफास्ट किया। थोड़ा बाहर वही गन्ने के खेत देखते हुए , कभी चीनी मिल देखते हुए। वही पुराने स्टेशनों को देखते हुए अपनी याद ताज़ा करते रहे।  ट्रेन भी हमें  यादों की महफ़िल से ग़ाज़ियाबाद मेरठ मुजफ्फरनगर देवबन्द चैप्टर को एक के बाद एक करके गुज़ारती रही और आखिर में मुझे मेरे जन्म स्थान  सहारनपुर में लाकर छोड़ दिया। 

वही सहारनपुर जिसके कभी एक कोने में मेरा घर था तो दूसरे कोने में  मेरा स्कूल।  घर से स्कूल जाते जाते करीब करीब सारे पुराने मोहल्ले कवर हो जाते थे। 

मेरा एक डॉक्टर दोस्त है, आजकल वो दिल्ली में ऑर्थोपेडिक डॉक्टर है।  एक बार उसने मुझे बताया था, बचपन में, कि कुत्ते भी अपना एक एरिया बनाकर उस पर राज करते हैं।  इसलिए एक मोहल्ले के कुत्ते दूसरे मोहल्ले के कुत्तो पर या एक गली के कुत्ते दूसरे गली के कुत्तो पर खूब भोंकते है। मै बचपन से बहुत बहानेबाज था।  एक बार मैंने इसी थ्योरी पर देर से घर आने का बहाना बनाया की, कैसे दाल मंडी पुल के कुत्ते खुमरान पल के कुत्तो से लड़ गए और हमारी मैन्युअल रिक्शा कैसे एक जाम में फंस गयी। आज भी मेरी माँ मेरी उस मासूमियत का बखान गहे बगाहे कर देती हैं। 

पर बचपन बचपन होता है।  मासूमियत भरा। उसी के लिए मै आया था।  स्कूल भी देख लेंगे और कुछ गलियां भी फिर से।  पर समय चक्र बलवान होता है जरुरी नहीं जो हम सोचे वही हो। मुझ जैसे भूतकाल में रहने वाले जीव के मुँह पर समय ने ऐसा तमाचा मारा कि मेरा मन एक बार को रोने का हुआ।  लेकिन जल्द ही मैंने अपने आप को संभाला।  हाँ लेकिन मेरे विचार है कुछ, जो मुझे लगता है की हम सब को सोचना चाहिए।

तो आखिरकार सहारनपुर पहुँच ही गए। जैसे ही ट्रेन से उतरे सामने से एक बहुत ही परचित से इंसान सामने खड़े हुए  हमारा इंतज़ार कर रहे थे।  उनकी हँसी आज भी वैसी  थी जैसा हम छोड़ कर गये थे। कौन थे वो? और सहारनपुर में क्या हुआ? कैसे यात्रा का एक पड़ाव  पूरा हुआ।

 यात्रा शायद ऐसे ही की जानी चाहिए - पड़ाव लेते हुए।  एक एक पल को जीते हुए। सब कुछ बताऊंगा और यह भी बताऊंगा कि मैंने अपने ट्रैकिंग बैग में क्या क्या पैक किया था।  मुझे लगता है हमने बहुत सही सही  चीज़े रखी थी। लेकिन क्या मिस हो गया बताऊंगा। अगली पोस्ट में। 

पिछला पोस्ट : मेरी पहली केदार यात्रा - क्यों



















सहारनपुर : The Oasis Hotel 11th May