Tuesday, July 30, 2019

केदार यात्रा से पहले सहारनपुर में अन्तिम दिन (6)















अच्छा लिखना और लगातार लिखना मेरे जैसे प्रथम बार के लेखक के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है।  जैसे मै जब केदार यात्रा से आया तो पूर्ण रूप से पवित्र था। पर जैसे जैसे भौतिक दुनिया में रमता रहा मेरी पवित्रता समाप्त होती रही। अब मुझ जैसे नए नवेले ब्लॉग लेखक जिसे कभी कभार यही नहीं पता होता की वो ब्लॉग लिख क्यों रहा है तो बहुत मुश्किल हो जाती है। कभी लगता है जल्दी से ब्लॉग लिख डालूँ कम से कम शब्दों में।

सहारनपुर में अंतिम दिन प्रथम दिन से बहुत अलग बीता। जँहा पहले दिन अपने पुराने घर और मोहल्ले में घूमे। घर मोहल्ला समय के साथ काफी बदल गया था।  कई लोगो की याददाश्त भी समय के साथ घट चुकी थी।

मेरे घर में लगाए सभी पेड़ समय के साथ कट गए थे।  बहुत सारा दुःख हुआ किन्तु आज जब मै लिख रहा हूँ तो समझ आता है समय के साथ परिवर्तन होता है कभी अच्छा कभी बुरा।

अंतिम दिन में बस एक ही प्रोग्राम था दोस्तों से मिलना। स्कूल में री-यूनियन रखा था फेसबुक पर ग्रुप पर डाला पर आये चार मुस्टंडे दोस्त ही। नहीं उनमें से दो सीधे भी हैं। पर एक सीख मिली कभी सीधे दोस्त मत बनाओ।  हरामी दोस्त ज्यादा याद करते हैं।

कुछ स्कूल के सहपाठियों ने कहा दोपहर का खाना साथ खाएंगे और हम स्कूल दर्शन और स्कूल में फोटोग्राफी सेशन पूरा कर अपने सहपाठी के यँहा पहुंचे। सुबह से लेकर देर दोपहर तक हमने री-यूनियन का आनंद उठाया।

 .......  डैश डैश डैश बहुत कुछ किया री यूनियन में। यह लाइन उन दोस्तों को समर्पित है। 

आख़िरकार सहारनपुर यात्रा अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँची और हमने सहारनपुर से खट्टी मीठी यादों के साथ विदा ली।

 शाम को हमने रोडवेज़ की बस ली और हरिद्वार के लिए निकल पड़े। क्योंकि ऋषिकेश के लिए कोई सीधी बस नहीं थी तो हमने हरिद्वार से दूसरी बस ली।  हमारा पड़ाव था गढ़वाल मंडल विकास निगम का मुनि की रेती स्थित गेस्ट हाउस।

सहारनपुर से हरिद्वार का रास्ता धुल भरा था क्योंकि वँहा फोर लेन हाईवे बन रहा है। काम चालू था।

आखिरकार चार साढ़े चार घंटे की थकाऊ व्यस्त यात्रा के बाद हम ऋषिकेश पहुँच ही गए। ऋषिकेश गेस्ट हाउस पहुँचने से पहले ही हमने वँहा बोल दिया था कि हम देर से पहुंचेंगे। मुझे डर था कँही हमारी बुकिंग किसी और को न दे दें।

अच्छा एक बात बोलूं  दीदी  को लेकर मै थोड़ा आशंकित था कि मेरे साथ वो फकीरी वाले ट्रिप में एडजस्ट कैसे करेंगी।  पर ट्रिप के बाद मेरी यह फकीरी धरी की धरी रह गयी जितने अच्छे से उन्होंने यह ट्रिप की और नाजुक पलों में मुझे हिम्मत दी। आज मै सोचता हूँ शायद मेरी केदार यात्रा अधूरी रह जाती।

अन्ततः हम ऋषिकेश पहुँच ही गए।बहुत ठंडी हवा बह रही थी कोई बोल रहा था यँहा रात में उत्तर से हवा बहती है।  कल सुबह का अलार्म लगा कर हम अपने स्लीपिंग बैग में घुस गए।
    

Tuesday, June 11, 2019

My blog has new address

     
 
 

Friday, June 07, 2019

केदार यात्रा से पहले सहारनपुर में पहला दिन (5)

थैंक यू, आपको मेरी ब्लॉग अच्छी लग रही है। सालो से कोशिश कर रहा था। सब भोले बाबा की इच्छा।

आख़िरकार ११ मई को, मै सहारनपुर पहुँच चुका था। सहारनपुर ऐतिहासिक जगह है। शायद आपको याद हो काकोरी काण्ड वाली ट्रेन। वो सहारनपुर से ही चलती थी। अच्छा मै जब छोटा था तब हरिद्वार भी सहारनपुर जिले का हिस्सा था। तब उत्तराखंड भी नहीं था सब उत्तर प्रदेश ही था। अरुण कुमार मिश्रा तब सहारनपुर जिले के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट होते थे। मेरे हमनाम है तो मुझे याद है। मै माँ के साथ १९८६ का कुम्भ मेला गया था। साथ में  हमारे पड़ोस में रहने वाले बहुत से अंकल,आंटी। याद है हम सुबह गए और शाम को लौट भी आये। पर पड़ोस में रहने वाली कपूर आंटी ने बोला वो सुबह का स्नान करके ही आएंगी। अगले दिन हरिद्वार में भगदड़ मच गयी। हमारे घर तब ब्लैक एंड व्हाइट टेक्सला टीवी था जिसके वुडेन दरवाजे फोल्ड हो जाते थे। उस टेलीविजन पर एक स्पेशल प्लास्टिक की ब्लू स्क्रीन लगाते थे। जैसे ही न्यूज़ में पता चला तो सब परेशान। आगे पीछे की सब गलियों वाले कपूर अंकल को आंटी के बारे में पूछे। हम सही समय पर वापिस आ गये थे। कपूर अंकल बड़े परेशान रहे पर शाम तक पता चला कपूर आंटी ठीक है।

कुछ भी कभी भी याद आता है मुझको। बचपन की यादें ऐसी ही होती है। कपूर अंकल के घर में एक आम का पेड़ था सावन के दिनों में उसी पर झूला लगता था।

जब भी सहारनपुर ट्रेन से पहुँचता हूँ। सहारनपुर की पेपरमिल सबसे पहले आपका स्वागत करती है।  बचपन में हमें उससे निकलने वाली गैसों की बदबू आज भी याद है।  पेपरमिल के सामने ही इंस्टिट्यूट ऑफ़ पेपर टेक्नोलॉजी (आई पी टी ) है जो की रूड़की यूनिवर्सिटी का ही एक पार्ट है।

आई पी टी मुझे याद है इस वजह से कि इस पर पहली बार मै किसी मैट विकेट पर क्रिकेट खेला था। बताना चाहूँगा मैट विकेट का मतलब, विकेट अब ऑस्ट्रेलिआ जैसी उछाल वाला विकेट बन चुका है। मैट पर गेंद गिरते ही साथ आपके कंधों तक आती है। मै क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाडी कभी नहीं रहा। सब मुझे शास्त्री कहते थे। क्योंकि चाहे मै आउट न हूँ पर मै रन बनाने में बहुत कंजूस था। इसलिए मुझको मेरे मोहल्ले की टीम में सबसे आखिरी वाले नंबर पर भेजते थे।

यादो का महाकुम्भ है मेरे पास।

सहारनपुर में हमें पुराने दोस्तों के साथ री-यूनियन मतलब सालों बाद मिलना था। जँहा हमने अपना बचपन बिताया वँहा समय बिताना था। फिर अगले दिन शाम को केदारनाथ यात्रा शुरू करने के लिए अपने दूसरे पड़ाव ऋषिकेश पहुंचना था।

जैसे ही ट्रेन से नीचे कदम रखा ही था तो सामने दीदी के बहुत पुराने मित्र, हमे लेने के लिए सामने खड़े थे।  जिनको चीनी से परहेज मगर गुटके से बहुत प्यार था। पर शौक बड़ी चीज़ है। वही अपनापन वही मुस्कराहट।

"तू अब भी वैसा है चुपचाप रहने वाला, या कुछ बदला भी है।" मै इसके जवाब में सिर्फ मुस्करा ही सकता था।

"अरे तुमने जब यह देखा था तब से यह जगह देखो कितना बदल गया है। और यह जगह तो बिलकुल ही बदल गयी । और देखो खानआलमपुरा फर्नीचर मार्किट, यह करीब करीब वही पुराने तीस साल जैसा ही है।"
कहते कहते उन्होंने अपनी कार डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल कैंपस में मोड़ दी जँहा हमने अपना बचपन बिताया था।

मै अपनी पुरानी जगह को देख सन्न रह गया। कँहा हम पहले सोच रहे थे पुराने लोगो से मिलेंगे पुरानी जगहों पर टहलेंगे। पर यह क्या? यँहा तो बहुत कुछ बदल गया था।  मुझे ऐसा लगा जैसे मै अपने बचपन की यादो के महलो के खंडहर देख रहा हूँ।

यह ऐसा था कि जब हम वँहा से निकले तो दीदी बोली अब कुछ बचा नहीं और वो सचमुच वँहा दुबारा नहीं गयी।

आधुनिकता का मतलब शायद यह नहीं की जँहा खुली जगह देखो वँहा बिल्डिंग बना दो वो भी किसी प्लानिंग के बिना। मुझे बहुत क्रोध था पर पता नहीं एडमिनिस्ट्रेशन की क्या मज़बूरी रही होगी।

मुझे याद है कैंपस के पास एक चौक था। उसे हॉस्पिटल साथ में होने के कारण हॉस्पिटल चौक ही बोलते थे। वँहा देहली चाट भण्डार के नाम से एक चाट वाला अपनी रेहड़ी लगता था। अपने समय में सहारनपुर का एकमात्र फेमस चाट वाला। हॉस्पिटल चौक से मुख्य शहर की तरफ जाने वाली रोड के दोनों ओर , जँहा यह चाटवाला भी था , बहुत लम्बे लम्बे पेड़ थे और उन पर हजारों चिड़ियाएँ रहती थी। जब आज से पंद्रह साल पहले यँहा आया था तो सड़क को चौड़ा करने के नाम पर वो सारे पेड़ काट दिए। वो हजारों चिड़ियाएँ, जब शाम को वो अपने इन घरों में वापिस आकर गुफ्तगू करती थी तो इनके शोर को बहुत दूर तक सुना जा सकता था। और तो और आप को एक दूसरे से बात करने के लिए जोर से बात करनी होती थी। पता नहीं वो सब कँहा चली गयी। पता नहीं किसी ने उनका पता ढूँढने की कोशिश की या नहीं।

आप नहीं जानते, मैंने अपने सबसे सुंदर ख्वाबघर को खो दिया है। मेरी यादों के बहुत से पॉइंट्स इस बेतरतीब निर्माण से ख़त्म हो गए। मुझे मेरी खुली जगह जँहा बहुत सारे पेड़ थे मैदान थे, उसकी बजाय छोटी सी जगह, छोटे से तंग रास्ते, इन्हें देखकर मेरी आँखों से आंसू भी स्तब्ध से रुके पड़े थे।  मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

मै ठीक अपने घर के सामने खड़ा था। पापा के लगाए सभी पेड़, सिर्फ पीछे के आँगन में लगाए आम के पेड़ के अलावा सब पेड़ काट दिए गए थे। अब सब कुछ मेरी यादों में ही है।

मै जैसा छोड़ कर गया था उससे मेरी जन्मभूमि बहुत बेतरतीब तरीके से बिगड़ चुकी थी। मै इस नुकसान को समझना चाहता था इसलिए शाम को फिर वापिस आया पुराने लोगो से मिला और अपना एक पुराना हिसाब भी चुकता किया। अभी तो हम अपने होटल पहुंचे। क्योंकि कल शाम के मुंबई से निकले रात को दिल्ली पहुँचे और फिर सहारनपुर। और तो और भैया की कार से एक छोटा सा सहारनपुर दर्शन। मिलेजुले से भाव लेकर अपनी यात्रा की थकान मिटाने अब हम अपने होटल पहुँच गए।

मुझे लगता है मै विषय से न भटक जाऊँ। बहुत से फीडबैक मिल रहे है। सबको ब्लॉग पसंद आ रही है। पर मुझे कभी लगता है सब डिलीट कर दूँ। फिर से लिखूँ।

मात्राओं की गलती बताने वाले मित्रों का धन्यवाद। थैंक्स आप मुझे लगातार फीडबैक दे रहे हैं। पर सहारनपुर चैप्टर मुझे मेरे मेन ऑब्जेक्टिव से विचलित तो नहीं कर रहा। शायद सहारनपुर केदारनाथ से पहले आना हमारी पहली भूल थी। क्यों? बताऊँगा अगली पोस्ट में।



   

Tuesday, June 04, 2019

मेरी पहली केदार यात्रा - पहला पड़ाव (4)

एक बार दीदी बोली , कैसा यह सफर होता है। नए नए लोग मिलते है उनका भी एक जीवन क्रम होता है। मुझे मैट्रिक्स मूवी की याद आ रही थी। कैसे विश्व को बनाने वाला लोगों के जीवन को प्रोग्राम करता है।

जैसे हम एयरपोर्ट से उतरे तो किसी ने बोला सामने ही एयरपोर्ट मेट्रो स्टेशन है। हमने जाने का रास्ता पूछा और हम मेट्रो स्टेशन के लिए चल पड़े। आधे रास्ते में ही टैक्सी वालो ने हमें गाइड और मिस गाइड दोनों ही किया।  हम हिचके, वापस अपने टर्मिनल लौटे और फिर सोचा , नहीं साइन बोर्ड देखते हुए चलो चलते है।  जैसे ही दूसरे टर्मिनल पर पहुंचे तो ईश्वर की कृपा थी अचानक मुझे कश्मीरी गेट जाने वाली एसी बस दिखी।  मैंने दीदी से बोला रात का समय है, हम इससे नई दिल्ली पहुँच सकते है। यह हमें आराम से पहुँचा देगी।  

और फिर पता नहीं क्या अचानक सूझा और हम बस में बैठ गए। सारे टर्मिनलो का चक्कर लगाते हुए यह लाल डब्बा बस हमें नयी दिल्ली ले ही आयी। वो भी शायद बहुत कम समय में। और बीच में तो मेरी आँख भी लग  गई थी।  

बस ने हमें अजमेरी गेट साइड छोड़ा और हम चलते हुए, सिक्योरिटी चेक को पार करते हुए अजमेरी गेट से लेकर पन्द्रह सोलह प्लेटफार्म जिक-जैक पैदल पुल से आखिरकार पहाड़ गंज साइड वाले एसी वेटिंग रूम में पहुँच गए। 

६० रूपये तीन घंटे के लिए। रिसेप्शनिस्ट ने कहा। ओके। और हमने अपने लिए एक कोने में बैठने की जगह ढूंढ ली। वेटिंग रूम में ही फ़ास्ट फ़ूड की शॉप भी थी।  चाय पी कोल्ड ड्रिंक पिया और थोड़ा आराम किया। पहले बैठने की जगह मिली और आखिर के घंटे में लेटने की भी जगह मिल ही गयी। 

वेटिंग रूम पूरी तरह से भरा था।  लोग सीटों पर सोये हुए थे , बैठे हुए थे , सामान रखा था। और सामने दीवार पर ८०-९०  दशक के हिंदी फ़िल्मी सांग्स एक केबल टेलीविजन पर चल रहे थे।  मै उसी में रम गया।  चूँकि मै अपने सामान को लेकर बहुत सतर्क था। खासकर नई दिल्ली स्टेशन पर। इसलिए सोया नहीं।

जिस बेबी का शायद कुछ दिन पहले ही जन्म हुआ हो , से लेकर जीवन के आखिरी पड़ाव पर पहुंचे सब लोग थे।  उस वेटिंग रूम में।  सब अपने डेस्टिनेशन पर जाने के लिए माध्यम अथार्त ट्रेन का वेट कर रहे थे।  

ट्रेन को शायद यूँही भारत की लाइफलाइन न बोलते हैं। वास्तव में भारत की ट्रेन और उसके स्टेशन इनका भी एक दर्शन है।

आखिरकार तीन घंटे बीत ही गए और हम अजमेरी गेट साइड देहरादून शताब्दी का वेट करने लगे। आराम से सीट मिल गयी। आराम से थोड़ा सोये शताब्दी ट्रैन का वही पुराना मेनू वाला ब्रेकफास्ट किया। थोड़ा बाहर वही गन्ने के खेत देखते हुए , कभी चीनी मिल देखते हुए। वही पुराने स्टेशनों को देखते हुए अपनी याद ताज़ा करते रहे।  ट्रेन भी हमें  यादों की महफ़िल से ग़ाज़ियाबाद मेरठ मुजफ्फरनगर देवबन्द चैप्टर को एक के बाद एक करके गुज़ारती रही और आखिर में मुझे मेरे जन्म स्थान  सहारनपुर में लाकर छोड़ दिया। 

वही सहारनपुर जिसके कभी एक कोने में मेरा घर था तो दूसरे कोने में  मेरा स्कूल।  घर से स्कूल जाते जाते करीब करीब सारे पुराने मोहल्ले कवर हो जाते थे। 

मेरा एक डॉक्टर दोस्त है, आजकल वो दिल्ली में ऑर्थोपेडिक डॉक्टर है।  एक बार उसने मुझे बताया था, बचपन में, कि कुत्ते भी अपना एक एरिया बनाकर उस पर राज करते हैं।  इसलिए एक मोहल्ले के कुत्ते दूसरे मोहल्ले के कुत्तो पर या एक गली के कुत्ते दूसरे गली के कुत्तो पर खूब भोंकते है। मै बचपन से बहुत बहानेबाज था।  एक बार मैंने इसी थ्योरी पर देर से घर आने का बहाना बनाया की, कैसे दाल मंडी पुल के कुत्ते खुमरान पल के कुत्तो से लड़ गए और हमारी मैन्युअल रिक्शा कैसे एक जाम में फंस गयी। आज भी मेरी माँ मेरी उस मासूमियत का बखान गहे बगाहे कर देती हैं। 

पर बचपन बचपन होता है।  मासूमियत भरा। उसी के लिए मै आया था।  स्कूल भी देख लेंगे और कुछ गलियां भी फिर से।  पर समय चक्र बलवान होता है जरुरी नहीं जो हम सोचे वही हो। मुझ जैसे भूतकाल में रहने वाले जीव के मुँह पर समय ने ऐसा तमाचा मारा कि मेरा मन एक बार को रोने का हुआ।  लेकिन जल्द ही मैंने अपने आप को संभाला।  हाँ लेकिन मेरे विचार है कुछ, जो मुझे लगता है की हम सब को सोचना चाहिए।

तो आखिरकार सहारनपुर पहुँच ही गए। जैसे ही ट्रेन से उतरे सामने से एक बहुत ही परचित से इंसान सामने खड़े हुए  हमारा इंतज़ार कर रहे थे।  उनकी हँसी आज भी वैसी  थी जैसा हम छोड़ कर गये थे। कौन थे वो? और सहारनपुर में क्या हुआ? कैसे यात्रा का एक पड़ाव  पूरा हुआ।

 यात्रा शायद ऐसे ही की जानी चाहिए - पड़ाव लेते हुए।  एक एक पल को जीते हुए। सब कुछ बताऊंगा और यह भी बताऊंगा कि मैंने अपने ट्रैकिंग बैग में क्या क्या पैक किया था।  मुझे लगता है हमने बहुत सही सही  चीज़े रखी थी। लेकिन क्या मिस हो गया बताऊंगा। अगली पोस्ट में। 

पिछला पोस्ट : मेरी पहली केदार यात्रा - क्यों



















सहारनपुर : The Oasis Hotel 11th May


Friday, May 31, 2019

मेरी पहली केदार यात्रा - क्यों (3)

कभी कभी मुझे लगता है शायद दूसरों को भी लगता हो , कि मै एक ही इंसान हूँ या दो तीन।  मेरे में भी बहुत कमियाँ है।  सबसे बड़ी कमी "ना सुनना"।

अच्छा मुझे पहाड़, ऊँचे ऊँचे पहाड़ पसंद है।  एक बार किसी ने मुझसे पुछा समुद्र तट या पहाड़।  बिना हिचक मैंने उसे बोला पहाड़। पहाड़ आपकी विल पावर की हर दूसरे मिनट में परीक्षा लेते है। जितना ऊपर आप पहुँचते है उतना ही सुन्दर दृश्य देखने को मिलता है।  और एक बात और , ऊपर से लोग छोटे छोटे भी दिखाई देते है।

कभी कभी सेम टू सेम जीवन भी ऐसा ही होता है ना।  जब आप समतल पर होते हो तो न तो ज्यादा सांस फूलती है।  लेकिन सब लोग समान होते है।  ऊपर चढ़ने की चाहत में आपको साँस फुलानी पड़ती है।  टाँगे आपको बोलती है कितना और चलाओगे।  लोगो से आप रास्ता पूछते हो , पूछते हो आगे कितना रास्ता बाकी है। कोई शार्ट कट भी है क्या ?

शॉर्टकट कई बार खतरनाक भी होता है जीवन में भी और पहाड़ों पर भी।

पर एक बार जब आप ऊपर चढ़ गए।  तो उससे भी ऊँचा पहाड़ दिखता है।  उसे भी विजित करना है।

तुंगनाथ गए लोग बताते थे कि कैसे वो एक शांत जगह पर पहुंचे जँहा से उन्हें और ऊँचे बर्फ से ढके पहाड़ दिखे। कैसे भोले बाबा वंहा विराजमान है।  कैसे ठंडी ठंडी हवा उन लोगो की परीक्षा लेती है। कैसे वँहा  कुछ देर मेडिटेट करने का मन करता है , मेरा तो सोने का भी किया।  कैसे बुरांश के फूल चोपता घाटी को अदभुत देव भूमि बनाते है।

सच बोलूं तो केदारनाथ से तुंगनाथ जाने का मेरा मन अधिक था।  केदारनाथ इसलिए की चलो एक धार्मिक यात्रा भी एक धाम भी हो जायेगा।  साथ में सोचा पुराने स्कूल के दोस्तों के साथ एक री-यूनियन भी की जाये।

नियति भी मुझको अपने विपश्यी मित्र के केदार बद्री के प्लान से कँहा ले गयी।  एक फकीरी वाला प्लान बना।  पर उसमें  अपने जन्मस्थान को देखने का लग्जरी प्लान भी ऐड हो गया।

मेरी बड़ी दीदी , शुरू से बहुत झुझारू और बहुत ही बुद्धिमान और प्रैक्टिकल है ।  बचपन से अगर मैंने अपनी लाइफ में कुछ अचीव किया तो उसका एक बड़ा श्रेय उनको जायेगा।

उन्होंने बोला दिल्ली से सहारनपुर बस , क्यों नहीं शताब्दी एक्सप्रेस से चले।  जो नॉर्थ इण्डिया में रहते है उन्हें पता है शताब्दी सुपर से सुपरफास्ट  ट्रेन है।  अब तो कम किराये वाली जन शताब्दी एसी ट्रेन भी ट्रैक पर दौड़ती है पर सुबह के हिसाब से शताब्दी मुझे ठीक लगी।  अब हम दो थे, मुझे दी की बात पसंद आयी और हमने शताब्दी से सहारनपुर जाने का निर्णय किया। पर  हमारी फ्लाइट दस मई की रात को मुंबई से दिल्ली की थी और हम सुबह के एक बजे दिल्ली पहुंच गये। हमारा प्लान था सुबह एयरपोर्ट मेट्रो में बैठकर दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचने का।  लेकिन एयरपोर्ट से उतरते हमें पता चला की मेट्रो स्टेशन अभी बंद है, एक तो रात के दो बजे के आस पास का समय और हमें समझ नहीं आ रहा था कि कैसे समय बिताये। आखिर में हमने सोचा मेट्रो स्टेशन पहुंचा जाये। वँही देखेंगे की रात कैसे बितायी जाये।

हमने अपने ट्रैकिंग बैग उठाये और मेट्रो स्टेशन की और चलना शुरू किया। तभी मेरी नज़र एक लाल रंग की बस  पर  पड़ी।  यह तो कश्मीरी गेट की बस  थी.

बस , नई दिल्ली रेलवे स्टेशन , स्टेशन का एसी वेटिंग रूम  बहुत कुछ है बताने को - अगली पोस्ट में

पिछला पोस्ट : मेरी पहली केदार यात्रा - यात्रा से पहले

Wednesday, May 29, 2019

मेरी पहली केदार यात्रा - यात्रा से पहले (2)

घर पर बोला दोस्तों के साथ जाना है , फिर बोला नहीं बात नहीं बनी अब अकेले जाऊँगा। हिमालय की खोज अकेले की जाये। जुकरबर्ग और स्टीव जॉब्स को जिस प्रकार नीम करोली वाले बाबा मिले या कितने ही महापुरषों को हिमालय में ज्ञान मिला। कुछ तो होगा इस हिमालय में।

अच्छा  डेकाथलान का नवी मुंबई में होना बहुत फायदेमंद रहा।  माँ की दी हुई आर्थिक सहायता से ट्रैकिंग का बहुत सा सामान जुटा लिया। सब सामानों की लिस्ट बनायी और कंप्यूटर में उन्हें सेव किया।

रोज लोकल इ-न्यूज़ पेपर पढ़कर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के बारे में पड़ना। इतना निश्चित था केदारनाथ में इस बार बहुत बर्फ गिरी थी।  वँहा की बहुत सी व्यवस्थाएँ या तो बर्फ़बारी में नष्ट हो गयी या उनका काम करने लायक होना मुश्किल था। पर केदारनाथ धाम में बर्फ का होना रोमांचित कर रहा था।


इंस्टाग्राम में केदारनाथ और तुंगनाथ के विडिओ देखकर पल पल मै रोमांचित था। मै रोज इनको अपने व्हाट्सएप्प स्टेटस में अपडेट करता।



पर शायद सिर्फ मै ही नहीं रोमांचित था।  मेरी बड़ी बहन भी उत्सुक थी। उन्होंने बोला , "अरुण , मै भी।" मैंने बोला , " हाँ , चलो। "

फिर क्या उन्होंने भी तैयारी शुरू कर दी। मयंक से , उनके अपने  दोस्तों से इनफार्मेशन लेना और देना शुरू हो गया।  एक बेसिक प्लान बना।  जिसमें अपने नेटिव होमटाउन में जाना भी निश्चित हुआ।

कुछ समय पहले नोएडा में हमने एक री-यूनियन की थी , जिसमें पुराने स्कूल के कुछ मित्र एक रेस्टोरेंट में  मिले थे। बहुत बार सोचा कि अपने पुराने स्कूल जाये और अपने स्कूल के दोस्तों से मिला जाये।

 इस बार मैंने सबको पहले से ही बोल दिया था कि हम मिलेंगे मई में।  इधर दीदी की भी री-यूनियन प्लान हो गयी। दीदी ने उसी फ्लाइट में टिकट बुक करा लिया जिसमें मेरा था।  मेरा पहला प्लान बस से सहारनपुर जाने का था।  लकड़ी की नक्काशी के लिए विश्व प्रसिद्ध सहारनपुर जो की हमारा होमटाउन है या था क्योंकि अब तो हम नवी मुंबई में ही बस गये। सहारनपुर में तो अब बसी है सिर्फ यादे - अनमोल बचपन की यादें।

तो केदारनाथ यात्रा से पहले हम सहारनपुर कैसे पहुँचे , करीब दस साल बाद मै वँहा पहुँचा था।  वँहा क्या देखा क्या मिस किया , क्यों मेरी आँखों में आँसू आ गये , आपको आगे बताऊँगा । ......

पिछला पोस्ट : मेरी पहली केदार यात्रा

Sunday, May 26, 2019

मेरी पहली केदार यात्रा (1)

मेरा एक विपश्यी हैदराबादी मित्र है। वो और मै पहली बार ईगतपुरी में मिले थे। वह तब मुंबई में ही माइंड स्पेस में जॉब करता था।  हाल ही में उसे बैंगलोर में जॉब मिला था। व्हाट्सप्प से कभी कभार एक दूसरे को मैसेज भेज दिया करते थे। उसे पीठ के दर्द की समस्या थी विपश्यना के आखिरी दिन किसी ने उसे बोला था की पीठ दर्द के लिए ट्रैकिंग बहुत अच्छा स्पोर्ट्स है। वो मुझसे कई बार बोलता था ट्रैकिंग जाने के लिए।  पर कभी भी हमारा समय मैच नहीं हो पाया।


फरवरी २०१९ के आखिरी दिनों में उसका मैसेज आया केदारनाथ जाना है।  शायद बिना कुछ ज्यादा सोचे एक दम से मैंने बोला,  "हाँ  चलो चलते है"। इस मित्र ने अपने मुंबई के दोस्तों  के साथ केदारनाथ बद्रीनाथ यात्रा का प्लान बनाया था। उसने अपने इस प्लान के व्हाट्सप्प ग्रुप में मुझको भी ऐड कर लिया।


लेकिन नियति अपने खेल खुद खेलती है।  मेरा एक बचपन का मित्र जो कि एयर इण्डिया के केबिन क्रू में एक अनोखा पैशन के साथ जॉब करने वाला इंसान है। हम जब भी बात करते है तो वो हिमालय के ऊपर ही होती है। वो भी उत्तराखंड के यमुनोत्री गंगोत्री से लेकर केदारनाथ बद्रीनाथ तक फैली विशाल हिमालय श्रंखला। उसकी तुंगनाथ मध्य महेश्वर की कहानिया सुनसुनकर मेरी भी तुंगनाथ जाने की इच्छा प्रबल हो चुकी थी।

हरे भरे पहाड़ , बर्फ से ढँकी ऊँची ऊँची चोटियाँ , बुगियाल मतलब इन पहाड़ो पर मिल जाने वाले मैदान और नीली हरी झीलें। जिसमे बर्फ की चोटियाँ झाँकती हो। ये मेरे सपनो के एक अटूट हिस्से है। जबकि कुल्लू में एक बार मै इन्ही पहाड़ों के बीच ना जाने क्यों मै अकेलेपन का हद तक अनुभव कर चुका हूँ।

प्लानिंग शुरू हुई , मयंक से प्लान डिस्कस किया गया।  उसने मुझे बोला तुंगनाथ तो ज़रूर करना।  बस यही पर मेरे इस दोस्त के दोस्तों और मुझमें विचारों का अंतर आ गया।  वो तुंगनाथ आखिर में करना चाहते थे बफर दिन में। जबकि मै तुंगनाथ यात्रा  केदारनाथ और  बद्रीनाथ यात्रा के बीच में करना चाहता था।  टेक्निकल रूप से मै सही था। तुंगनाथ केदारनाथ और बद्रीनाथ के बीच आता है ,लेकिन तुंगनाथ मेरे मित्र और उसके मित्रों के मूल प्लान में नहीं था । अन्ततः आख़िरकार मैंने अपने मित्र को बोला मै तुंगनाथ को मिस नहीं करूँगा और उन्होंने कहा वो बद्रीनाथ आखिर में नहीं करेंगे। और मै उनके ग्रुप से एग्जिट कर गया।

लेकिन तब तक फ्लाइट बुक हो चुकी थी।  और मैंने केदारयात्रा अकेले करने का निर्णय किया।

आज बस इतना ही , केदारयात्रा  से आखिर मैंने क्या खोया क्या पाया आपको आगे बताऊंगा। ........