कभी कभी मुझे लगता है शायद दूसरों को भी लगता हो , कि मै एक ही इंसान हूँ या दो तीन। मेरे में भी बहुत कमियाँ है। सबसे बड़ी कमी "ना सुनना"।
अच्छा मुझे पहाड़, ऊँचे ऊँचे पहाड़ पसंद है। एक बार किसी ने मुझसे पुछा समुद्र तट या पहाड़। बिना हिचक मैंने उसे बोला पहाड़। पहाड़ आपकी विल पावर की हर दूसरे मिनट में परीक्षा लेते है। जितना ऊपर आप पहुँचते है उतना ही सुन्दर दृश्य देखने को मिलता है। और एक बात और , ऊपर से लोग छोटे छोटे भी दिखाई देते है।
कभी कभी सेम टू सेम जीवन भी ऐसा ही होता है ना। जब आप समतल पर होते हो तो न तो ज्यादा सांस फूलती है। लेकिन सब लोग समान होते है। ऊपर चढ़ने की चाहत में आपको साँस फुलानी पड़ती है। टाँगे आपको बोलती है कितना और चलाओगे। लोगो से आप रास्ता पूछते हो , पूछते हो आगे कितना रास्ता बाकी है। कोई शार्ट कट भी है क्या ?
शॉर्टकट कई बार खतरनाक भी होता है जीवन में भी और पहाड़ों पर भी।
पर एक बार जब आप ऊपर चढ़ गए। तो उससे भी ऊँचा पहाड़ दिखता है। उसे भी विजित करना है।
तुंगनाथ गए लोग बताते थे कि कैसे वो एक शांत जगह पर पहुंचे जँहा से उन्हें और ऊँचे बर्फ से ढके पहाड़ दिखे। कैसे भोले बाबा वंहा विराजमान है। कैसे ठंडी ठंडी हवा उन लोगो की परीक्षा लेती है। कैसे वँहा कुछ देर मेडिटेट करने का मन करता है , मेरा तो सोने का भी किया। कैसे बुरांश के फूल चोपता घाटी को अदभुत देव भूमि बनाते है।
सच बोलूं तो केदारनाथ से तुंगनाथ जाने का मेरा मन अधिक था। केदारनाथ इसलिए की चलो एक धार्मिक यात्रा भी एक धाम भी हो जायेगा। साथ में सोचा पुराने स्कूल के दोस्तों के साथ एक री-यूनियन भी की जाये।
नियति भी मुझको अपने विपश्यी मित्र के केदार बद्री के प्लान से कँहा ले गयी। एक फकीरी वाला प्लान बना। पर उसमें अपने जन्मस्थान को देखने का लग्जरी प्लान भी ऐड हो गया।
मेरी बड़ी दीदी , शुरू से बहुत झुझारू और बहुत ही बुद्धिमान और प्रैक्टिकल है । बचपन से अगर मैंने अपनी लाइफ में कुछ अचीव किया तो उसका एक बड़ा श्रेय उनको जायेगा।
उन्होंने बोला दिल्ली से सहारनपुर बस , क्यों नहीं शताब्दी एक्सप्रेस से चले। जो नॉर्थ इण्डिया में रहते है उन्हें पता है शताब्दी सुपर से सुपरफास्ट ट्रेन है। अब तो कम किराये वाली जन शताब्दी एसी ट्रेन भी ट्रैक पर दौड़ती है पर सुबह के हिसाब से शताब्दी मुझे ठीक लगी। अब हम दो थे, मुझे दी की बात पसंद आयी और हमने शताब्दी से सहारनपुर जाने का निर्णय किया। पर हमारी फ्लाइट दस मई की रात को मुंबई से दिल्ली की थी और हम सुबह के एक बजे दिल्ली पहुंच गये। हमारा प्लान था सुबह एयरपोर्ट मेट्रो में बैठकर दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचने का। लेकिन एयरपोर्ट से उतरते हमें पता चला की मेट्रो स्टेशन अभी बंद है, एक तो रात के दो बजे के आस पास का समय और हमें समझ नहीं आ रहा था कि कैसे समय बिताये। आखिर में हमने सोचा मेट्रो स्टेशन पहुंचा जाये। वँही देखेंगे की रात कैसे बितायी जाये।
हमने अपने ट्रैकिंग बैग उठाये और मेट्रो स्टेशन की और चलना शुरू किया। तभी मेरी नज़र एक लाल रंग की बस पर पड़ी। यह तो कश्मीरी गेट की बस थी.
बस , नई दिल्ली रेलवे स्टेशन , स्टेशन का एसी वेटिंग रूम बहुत कुछ है बताने को - अगली पोस्ट में
पिछला पोस्ट : मेरी पहली केदार यात्रा - यात्रा से पहले
अच्छा मुझे पहाड़, ऊँचे ऊँचे पहाड़ पसंद है। एक बार किसी ने मुझसे पुछा समुद्र तट या पहाड़। बिना हिचक मैंने उसे बोला पहाड़। पहाड़ आपकी विल पावर की हर दूसरे मिनट में परीक्षा लेते है। जितना ऊपर आप पहुँचते है उतना ही सुन्दर दृश्य देखने को मिलता है। और एक बात और , ऊपर से लोग छोटे छोटे भी दिखाई देते है।
कभी कभी सेम टू सेम जीवन भी ऐसा ही होता है ना। जब आप समतल पर होते हो तो न तो ज्यादा सांस फूलती है। लेकिन सब लोग समान होते है। ऊपर चढ़ने की चाहत में आपको साँस फुलानी पड़ती है। टाँगे आपको बोलती है कितना और चलाओगे। लोगो से आप रास्ता पूछते हो , पूछते हो आगे कितना रास्ता बाकी है। कोई शार्ट कट भी है क्या ?
शॉर्टकट कई बार खतरनाक भी होता है जीवन में भी और पहाड़ों पर भी।
पर एक बार जब आप ऊपर चढ़ गए। तो उससे भी ऊँचा पहाड़ दिखता है। उसे भी विजित करना है।
तुंगनाथ गए लोग बताते थे कि कैसे वो एक शांत जगह पर पहुंचे जँहा से उन्हें और ऊँचे बर्फ से ढके पहाड़ दिखे। कैसे भोले बाबा वंहा विराजमान है। कैसे ठंडी ठंडी हवा उन लोगो की परीक्षा लेती है। कैसे वँहा कुछ देर मेडिटेट करने का मन करता है , मेरा तो सोने का भी किया। कैसे बुरांश के फूल चोपता घाटी को अदभुत देव भूमि बनाते है।
सच बोलूं तो केदारनाथ से तुंगनाथ जाने का मेरा मन अधिक था। केदारनाथ इसलिए की चलो एक धार्मिक यात्रा भी एक धाम भी हो जायेगा। साथ में सोचा पुराने स्कूल के दोस्तों के साथ एक री-यूनियन भी की जाये।
नियति भी मुझको अपने विपश्यी मित्र के केदार बद्री के प्लान से कँहा ले गयी। एक फकीरी वाला प्लान बना। पर उसमें अपने जन्मस्थान को देखने का लग्जरी प्लान भी ऐड हो गया।
मेरी बड़ी दीदी , शुरू से बहुत झुझारू और बहुत ही बुद्धिमान और प्रैक्टिकल है । बचपन से अगर मैंने अपनी लाइफ में कुछ अचीव किया तो उसका एक बड़ा श्रेय उनको जायेगा।
उन्होंने बोला दिल्ली से सहारनपुर बस , क्यों नहीं शताब्दी एक्सप्रेस से चले। जो नॉर्थ इण्डिया में रहते है उन्हें पता है शताब्दी सुपर से सुपरफास्ट ट्रेन है। अब तो कम किराये वाली जन शताब्दी एसी ट्रेन भी ट्रैक पर दौड़ती है पर सुबह के हिसाब से शताब्दी मुझे ठीक लगी। अब हम दो थे, मुझे दी की बात पसंद आयी और हमने शताब्दी से सहारनपुर जाने का निर्णय किया। पर हमारी फ्लाइट दस मई की रात को मुंबई से दिल्ली की थी और हम सुबह के एक बजे दिल्ली पहुंच गये। हमारा प्लान था सुबह एयरपोर्ट मेट्रो में बैठकर दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचने का। लेकिन एयरपोर्ट से उतरते हमें पता चला की मेट्रो स्टेशन अभी बंद है, एक तो रात के दो बजे के आस पास का समय और हमें समझ नहीं आ रहा था कि कैसे समय बिताये। आखिर में हमने सोचा मेट्रो स्टेशन पहुंचा जाये। वँही देखेंगे की रात कैसे बितायी जाये।
हमने अपने ट्रैकिंग बैग उठाये और मेट्रो स्टेशन की और चलना शुरू किया। तभी मेरी नज़र एक लाल रंग की बस पर पड़ी। यह तो कश्मीरी गेट की बस थी.
बस , नई दिल्ली रेलवे स्टेशन , स्टेशन का एसी वेटिंग रूम बहुत कुछ है बताने को - अगली पोस्ट में
पिछला पोस्ट : मेरी पहली केदार यात्रा - यात्रा से पहले